घूमता चश्मा

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस : लेखक, कवि और टिपण्णी

हिंदी दिवस... बस सब जागरूक हो उठते हैं खास तौर से लेखक और कवि... अच्छा है बहुत अच्छी बात है होना भी चाहिए... पर ये दिवस तो पहले से ही मुझे समझ नहीं आते... माता का पिता का भाई का बहन का दादा का दादी का सबके दिवस घोसित कर दिए गए हैं.... सुबह उठते ही पता नहीं फोन मे कौन सा बधाई सन्देश हमे मुह चिढाने को तैयार हो कोई भरोसा ही नहीं... मुझे तो लगता है कुछ दिनों मे पालतु कुत्ता, बिल्ली, गाय, भेंस, चूहा, खरगोश और पता नहीं क्या क्या सारे दिवस बन जायेंगे... खैर मुझे क्या करना दिमाग लगा के, दिमाग वैसे ही कम है खर्च करने पे बढ़ता तो नहीं सर दर्द जरुर होने लगता है. खैर मै इस लेख मै हिंदी की टांग तोड़ने वाले लोगों की बुराई करने वाले मुझ जैसे लेखकों पे ही टिपण्णी करने जा रहा हूँ. क्षमा करियेगा ना भी करिए चलेगा, कौन सा आप लोगों को मेरा पता ठिकाना मालूम है.


हाँ तो मै ये कहा रहा था ये जागरूकता बड़ी अच्छी लगती है मुझे जो किसी किसी दिवस पर लोगों के अन्दर धर कर जाती है जैसे हिंदी दिवस पर कुछ कवियों और लेखकों के ह्रदय मे. और ऐसा होते ही उनकी लेखनी चल पड़ती है टिप्पणियाँ और कसीदें लिखने पूरे समाज पे, ये कौन सा हिंदी दिवस मना रहे हो भाई?? हिंदी के इतिहास भूगोल की चर्चा कर लेते एक बार तो कम से कम लोगों को कुछ ज्ञान मिलता पर नहीं अपनी लेखनी की भड़ास निकालने का अवसर तो भाईसाहब लोगों को दिवसों पे ही मिलता है. सीखा के क्या घंटा चैन मिलेगा आत्मा को. सही भी है अपने बच्चों को तो what is your name पे जवाब देना सिखा सिखा के वैसे ही इतनी थकन लग जाती होगी पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी समझना बोलना खाना पीना रहना ओढना सीखा लें फिर बाकियों को बाकी चीजें सिखायेंगे. भैय्या नौजवान पीढ़ी है आप ही लोगों से बनी है आप ही लोगों की सिखाई हुई है. अब बड़े बड़े सी.ई.ओ. लोगों के साथ मंत्र्नाएं और नौकरी करनी है तो अंग्रेजी तो रक्त मे बसानी पड़ेगी. अपने घर के सम्बन्ध मे और अपने संभंध मे ये बातें पसंद आती हैं हम लोगों को पर सामने वाला अगर कुछ बोल भर दे अंग्रेजी का २ ४ शब्द तो बस अगले दिन उस पर कविता और लेख सब लिख दोगे.  तो ये आडम्बर क्यूँ ?? सिर्फ कागजों पे अथवा अपने ब्लॉग मे हिंदी लिख के आप हिंदी का कौन सा सम्मान कर ले रहे हो?? सिर्फ दूसरों को टिपण्णी की विषयवस्तु बना के हिंदी का कौन सा सम्मान कर ले रहे हो?? और अगर आप सवाल उठाते हो तो हिंदी के बीच मे सिर्फ अंग्रेजी के इस्तेमाल पे क्यूँ?? कई सारे सब्द हम अपनी भाषा मे प्रयोग कर रहे हैं जो की उर्दू के फारसी के अरबी के और बल्कि कई अन्य भाषाओं के हैं.. तो सवाल सिर्फ अंग्रेजी को बीच मे घुसेड़ने पे क्यूँ... अरे भाई बंधुओं आप लोग अति विद्वान हैं, ब्लॉग पे हैं आजकल बहुत से नवयुवक ब्लॉग पढ़ रहे हैं पढ़ते हैं कविताओं और लेखों का भी शौक रखते हैं, आप उनपे टिपण्णी करते हो वो पढ़ते हैं और हँसते हैं उनको भी ये नहीं पता होता की ये सब उन्ही के लिए है. तो जनाब इससे बेहतर की आप कुछ ऐसा लिखें जिसे पढ़ के हिंदी के विषय मे ज्यादा ज्ञान मिले हमे और उन्हें. चिढाना, टिपण्णी करना, मजाक उडाना बेशक एक कला है कवि और लेखकों की...... पर अपनी मातृभाषा और अपनी युवा पीढ़ी जिसको आप कुछ सीखा सकते हैं उनपे इस कला का इस्तेमाल करना ???? सही है क्या???
                         मुझे क्षमा करियेगा मे एक अदना सा इन्सां... ज्यादा ज्ञान नहीं इसीलिए अज्ञानियों की तरह कुछ भी लिख देता हूँ पर अगर इसके सार को और मेरी मनोवेदना को समझ पाएं हो तो अगले हिंदी दिवस पे कुछ बेहतर प्रयास करियेगा. मुझे भी कुछ अच्छा सिखायिएगा मे भी शायद उसी समाज का एक अभिन्न हिस्सा हूँ जिसपे आप टिपण्णी करते हैं और खुद भी जिसका हिस्सा हैं आप.............

Friday, April 30, 2010

मगर आज डर लगता है मुझे..

एक पुस्तक लिख रहा हूँ आजकल कुछ खाली वक़्त अगर मिल जाता है तो..  शीर्सक है Three Miss Calls..  उसी का एक छोटा सा सार कह लीजिये या एक परिचय.. बस आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ मेरी उस पुस्तक का एक छोटा सा अंश.. हाँ हालाकि मेरी वो पुस्तक अंग्रेजी भाषा मे है..और मैं ये सार आपके सामने हिंदी मे रख रहा हूँ...

सुबह प्रकृति की किलकारियों पे तो ध्यान देना तो शायद छोड़ ही सा दिया था, बस याद रहता था तो इतना की उसकी आवाज सुन्नी है सुबह उठते ही. सुबह घर से निकलते ही कहाँ जाना है शायद भूल भी जाऊं पर उसका चेहरा देखने की प्रबल जरुरत सदा ही महसूस होती थी. पता नहीं क्यूँ उससे इतनी मोहब्बत थी की कभी उससे बिछड़ने के बारे मे तो सोचा तक नहीं. बस एक मौका मिल जाये तो फ़ोन खुद ब खुद लग जाता था उसको. कभी ही शायद सोया हूँगा रात को उसकी आवाज  सुने  बिना... मगर आज डर लगता है मुझे.. हिम्मत नहीं बची मेरे पास रात को उसको फ़ोन करने की, क्युंकी आज मुझे पता है की शायद रात भर वो फ़ोन अब वेटिंग मे ही मिलेगा, नहीं है मेरे पास हिम्मत दिन मे या सुबह या किसी भी वक़्त फ़ोन मिलाने की, क्युंकी मुझे पता है की या तो उठेगा नहीं और अगर उठ गया तो बहुत से इल्जाम मेरे पे एक बार फिर से लग जायेंगे. क्या यही प्यार होता है की जब तक साथ थे कोई मुश्किलें न थी तब तो हम एक दुसरे मे ही पूरी दुनिया देख लेते हैं और जरा सी मुश्किलें सामने आई तो एक आसां रास्ता मिलते ही उसपे मुड़ जाते हैं.. और वही  इन्सान जो कभी आपका पूरक था आज शायद सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है.. साथ मे उसके दोस्त भाई बहन भी आप से बे इन्तेहाँ नफरत करने लगते हैं जैसे की अब आपके पास दिल ही न बचा हो, जितने जख्म दे दो दर्द नहीं होगा.  वो तो आपसे दूरियां अपना ही लेती है साथ मे आपके पीछे छोड़ देती है बहुत से और लोग आपको हर पल आपकी हार का एहसास दिलाने को.. और आप भी भूल जाते हो की कल तक आप जो एक स्वछंद बेपरवाह किसी राजा की तरह जी रहे थे आज आप अपने घुटनों  पे हो उन लोगों के सम्मुख जिनको आप कभी जीने का तरीका सिखाते थे.. यही नियति है, यही होनी है और यही शायद एक सफल प्रेम का असफल अंत.. आज मुझे पता है की वो मेरे सामने हो के मेरे से इत्ती दूर है की मै शायद उसे देख भी नहीं पाता.. बस देख पाता हूँ तो इत्ता की हर पल उसे मुझसे और दूर करता जा रहा है... 

Thursday, April 29, 2010

प्लीज़ बेइज्जती कर दो.. नाम कमाना है..

नौकरी बजाने के ही एक चक्कर मे शहर से बाहर निकले और एक गाजीपुर नमक जिले मे जा पहुंचे. आयकर विभाग मे कुछ औडिट करनी थी तो वहीँ आयकर अधिकारी जी के सामने बैठे थे. साथ मे कोई एक सज्जन और थे कुछ नेता सरीखे या शायद ठेकेदार, अब ये नहीं बता सकता की समाज के या की किसी और चीज के. खैर जो भी थे थे बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व. उनकी एक बात ने बड़ा ही प्रभावित किया इतना की बस हम तुरंत ही चाहने लगे की बस  कोई आये हमारी बेइज्जती कर दे.. हाँ जी हम तब से अपनी बेइज्जती को तरस रहे हैं साहिब. अब वो बात क्या थी ये भी सुन लीजिये. बकौल उनके आप अपनी बेइज्जती करा लीजिये तो आप विश्व मे जरुर एक ना एक दिन अपना नाम कर लेंगे. नहीं जी ये कोई हवाई बातें नहीं उन्होंने तीन बहुत बड़े बड़े तर्क दिए हमे इस बात के पीछे के. आप भी पढ़िए वो तर्क या वो उदहारण..

पहला तर्क था महात्मा गाँधी जी का जिसमे उनकी दक्षिण अफ्रीका मे एक ट्रेन मे कुछ अंग्रेजों ने उनको बेइज्जत किया था बावजूद इसके की उनके पास प्रथम श्रेणी का टिकेट था. इस बात ने बापू को इस कदर आहत किया की वहां से उन्होंने ठानी की बस अब तो इन सब अत्याचारों के खिलाफ एक अहिंसात्मक जंग छेड़नी होगी और वो दिन था और आज का दिन है कौन नहीं जानता विश्व भर मे बापू को. ये था बेइज्जत होके नाम कमाने वाला पहला तर्क.



दूसरा उदाहरण था बाबा भीम राव अंबेडकर का. कोई एक बारिश के दिन जब बाबा साहेब छोटे बालक थे किसी एक मकान की आड़ मे खड़े हो गए भीगने से बचने के लिए. इसी बीच मकान मालिक ने उन्हें खड़ा देखा और ज्यूँ ही उसे पता चला की ये बालक तो अछूत है, बस क्या था खुद भीगते हुए उसने बाबा साहेब को वहां से खदेड़ दिया. एक घटना और थी जहां पे बालक अंबेडकर किसी बेलगाडी मे बैठ के जा रहे थे, राह मे ही बैलगाड़ी वाले ने उनसे उनके पिता का नाम पुछा और जैसे ही उसे पता चला की बालक तो एक दलित पुत्र है उसने बाबा साहेब को गाडी से उतार दिया. बस उसी दिन बाबा साहेब ने शायद कुछ सोचा और आज के दिन हम जिस देश मे रह रहे हैं वो और उसका हर नागरिक उनके लिखे सिद्धांतों नियमों पे चल रहा है वो चाहे एक दलित हो या कोई ऊँची जात का, एक गरीब हो या बहुत धनवान व्यक्ति.


तीसरा उदाहरण था तुलसी दास जी का.. पत्नी प्रेम मे इतना व्याकुल हो बैठे की एक दिन बिना किसी सुचना या आमंत्रण के वो पहुँच गए अपनी पत्नी से मिलने उनके मायके. बस क्या था उनकी पत्नी उन्हें यकायक देख के कुछ इस तरह शर्मिंदा और क्रोधित हुई की उन्होंने कुछ इस तरह से तुलसी दास जी को कोसा की इस तरह का प्रेम जो तुम मुझसे करते हो बिना बुलाये इस तरह से आ पहुंचे लोग क्या कहेंगे, इतना प्रेम अगर तुमने भगवान से किया होता तो कुछ सार्थक होता. बस ये थी वो बेइज्जती जहां से उन्होंने कुछ ऐसा कर डाला की आज वो विश्व के एक महानतम ग्रन्थ श्री राम चरित मानस के रचयिता के रूप मे जाने जाते हैं.


बस ये तीन महापुरुष और उनकी ये बेईज्जतियाँ. बस हमारे मन मे तब से एक प्रबल इच्छा धर कर बैठी की कोई तो आये और कुछ इस कदर बेइज्जती कर दे की बस हम भी कुछ कर जाएँ इस दुनिया मे.  पर कोई उपाय सुझा ही नहीं जिससे हम खुद की बेइज्जती करा पाएं. हाँ एक और बात आती है मन मे की क्या आज के दौर मे जब हर कदम पे नफरत, गतिरोध और जलन रुपी महादानव व्याप्त है तो क्या बेइज्जती रुपी दानव अकेला इनको हरा पायेगा और क्या आज हमारे पास इतनी शर्म और इच्छाशक्ति व्यापत है की हम एक कठोर निर्णय लेके उसपे अमल कर पाएंगे. हाँ क्यूँ नहीं पर उसके लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ेगा शायद वो सब कुछ जिसकी हमे आदत है और जिसके बिना हम जीने की सोच भी नहीं पाते.


बेइज्जती हो जाने भर से हम सफल हो जायेंगे??


नहीं बिलकुल भी नहीं. उदाहरण पढने मे तो लगता है हमे भी सुनने मे लगा था की बस बेईज्जती हो जाएगी, मन कुछ कचोट देगा और कुछ कर जायेंगे. पर नहीं वो बेइज्जती भी सिर्फ उन्ही को कचोट सकती है जिनके पास परम इच्छा शक्ति, परम अंतर बल, कठोर मानसिकता और परम सहनशीलता हो. जो उन तीनों के पास था.


पर हमारे पास शायद नहीं है क्यूंकि हम तो हमेशा से आज की उन्नत तकनीक का सहारा लेके जीते आये हैं. चलने को गाडी ऑटो सब मौजूद है. खाने को दुनिया भर के व्यंजन बस जेब भर की दूरी पे हैं. इस कंप्यूटर और मशीनी दुनिया मे आत्म सम्मान और शर्म भी बस दिखावे भर के लिए ही बची है.


पर कोई बात नहीं आप एक बार कोशिश कर के देखिये. हाँ जनाब कोशिश करिए की कोई आपकी भरे समाज मे बेइज्जती का दे क्या पता आपका आत्म सम्मान इतना मजबूत हो की आप उठके कुछ कर ही जाएँ. कोशिश करने मे क्या जा रहा है तो बस कुछ उपाय ढूंढिए अच्छे अच्छे और हमे भी बताइए की कैसे अपनी बेइज्जती करा लें... आखिर हमे भी नाम कमाने का शौक है भाई..

लो जी चिट्ठाजगत का एक और चिट्ठा ---- घूमता चश्मा

लो जी चिट्ठाजगत का एक और चिट्ठा.. भीड़ मे एक और अटपटा सा नाम घूमता चश्मा. हाँ जी बिलकुल अपने चश्मे के भीतर से जो दुनिया देखता चलूँगा या देखा है हाल फिलहाल तक उसका कच्चा चिट्ठा और मन के उदगार निकालने की एक नयी कोशिश करने को इस चिट्ठे को अवतरित कर दिया है. सच बोलूँ तो नक़ल ही की है बाकी चिट्ठों की. लेख लिखता रहता हूँ पर पुराने ब्लॉग मे कविता भी ग़जल भी और लेख भी सब कुछ लिख डाल रहा था तो खुद भी खिचड़ी लगने लग गयी थी. अपने 'अपूर्ण' दोस्त को देखा की एक नया ब्लॉग बना दिया कुछ इधर उधर की लिखने को तो बस मुझे भी हो गयी खुजली और बना डाला ये चिट्ठा. चिट्ठों की दुनिया मे अभी अभी कदम रखा है और बहुत कुछ सीखने को मिला अब तक तो. वास्तव मे तो समीर लाल जी ने इतना प्रभावित किया है इस दुनिया मे की मेरे लिए तो वो चिट्ठा जगत के अमिताभ बच्चन बन गए हैं. खुल के कहता हूँ उनकी नक़ल करूँगा मै तो. हालाकि अपनी तो इतनी भी हैसियत नहीं की उनकी नक़ल भी कर पाऊं क्यूंकि नक़ल मे भी अक्ल चाहिए और उनके उम्दा लेखन की नक़ल तक करना बहुत मुश्किल सा काम है. पर कोई नहीं प्रेरणा तो मिल ही सकती है, क्या पता कभी कुछ ऐसा बन पड़े की हमे भी १०० से ऊपर टिप्पणियाँ मिल जाएँ. अब सपने जैसा ही है मगर सपने ना देखूँगा तो जियूँगा कैसे. सपनों बिना तो जीवन भी मृत्यु के समान ही कहलायेगा ना.


दुनिया के रंगों से भरा हुआ एक जीवन,
होनी अनहोनी को भुनाता झूमता नगमा.
थोड़ी हंसी ठिठोली और थोडा सा चिंतन,
ऐसे ही कुछ किस्से सुनाता घूमता चश्मा.




तो चलिए जनाब शुरु करते हैं यहाँ के बाद से अपना ये सफ़र..... पढ़ते रहिये घूमता चश्मा....