घूमता चश्मा

Thursday, April 29, 2010

लो जी चिट्ठाजगत का एक और चिट्ठा ---- घूमता चश्मा

लो जी चिट्ठाजगत का एक और चिट्ठा.. भीड़ मे एक और अटपटा सा नाम घूमता चश्मा. हाँ जी बिलकुल अपने चश्मे के भीतर से जो दुनिया देखता चलूँगा या देखा है हाल फिलहाल तक उसका कच्चा चिट्ठा और मन के उदगार निकालने की एक नयी कोशिश करने को इस चिट्ठे को अवतरित कर दिया है. सच बोलूँ तो नक़ल ही की है बाकी चिट्ठों की. लेख लिखता रहता हूँ पर पुराने ब्लॉग मे कविता भी ग़जल भी और लेख भी सब कुछ लिख डाल रहा था तो खुद भी खिचड़ी लगने लग गयी थी. अपने 'अपूर्ण' दोस्त को देखा की एक नया ब्लॉग बना दिया कुछ इधर उधर की लिखने को तो बस मुझे भी हो गयी खुजली और बना डाला ये चिट्ठा. चिट्ठों की दुनिया मे अभी अभी कदम रखा है और बहुत कुछ सीखने को मिला अब तक तो. वास्तव मे तो समीर लाल जी ने इतना प्रभावित किया है इस दुनिया मे की मेरे लिए तो वो चिट्ठा जगत के अमिताभ बच्चन बन गए हैं. खुल के कहता हूँ उनकी नक़ल करूँगा मै तो. हालाकि अपनी तो इतनी भी हैसियत नहीं की उनकी नक़ल भी कर पाऊं क्यूंकि नक़ल मे भी अक्ल चाहिए और उनके उम्दा लेखन की नक़ल तक करना बहुत मुश्किल सा काम है. पर कोई नहीं प्रेरणा तो मिल ही सकती है, क्या पता कभी कुछ ऐसा बन पड़े की हमे भी १०० से ऊपर टिप्पणियाँ मिल जाएँ. अब सपने जैसा ही है मगर सपने ना देखूँगा तो जियूँगा कैसे. सपनों बिना तो जीवन भी मृत्यु के समान ही कहलायेगा ना.


दुनिया के रंगों से भरा हुआ एक जीवन,
होनी अनहोनी को भुनाता झूमता नगमा.
थोड़ी हंसी ठिठोली और थोडा सा चिंतन,
ऐसे ही कुछ किस्से सुनाता घूमता चश्मा.




तो चलिए जनाब शुरु करते हैं यहाँ के बाद से अपना ये सफ़र..... पढ़ते रहिये घूमता चश्मा....

1 Comments:

  • " बाज़ार के बिस्तर पर स्खलित ज्ञान कभी क्रांति का जनक नहीं हो सकता "

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    By Blogger Jayram Viplav, At May 11, 2010 at 5:43 AM  

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